सतना के डाडिन गांव के मनीष मवासी गुरुग्राम के पास सोनम शहर में क्रेशर में काम करने गए। वहां उन्हें 9000 रुपए मासिक वेतन मिलता था। रहने की व्यवस्था ठेकेदार द्वारा की गई थी। लॉक डाउन हुआ, काम बंद हो गया। ठेकेदार ने 5 दिन तक खाने में मदद की फिर कहा कि अब घर चले जाओ, लेकिन एक महीने तक वहां से निकलना मुमकिन नहीं हो पाया। मनीष ने तीन मई को तय किया कि अब घर जाएंगे। उस समय जेब में सिर्फ 1200 रुपए बचे थे। रास्ते में एक ट्रक वालों को 830 दिए और 150 किलोमीटर पैदल चले।
कुछ इसी तरह की कहानी महिलोखर गांव के राजबहोर कोल की है जो राजकोट, गुजरात में टाइल्स बनाने वाली फैक्ट्री में 10 हज़ार रुपए महीने पर काम करते थे। साल के 11 महीने वे वहीं रहते थे। उनकी पत्नी सुनीता गांव में ही 10-12 दिन मजदूरी करती और 2000 रुपये कमा लेती थीं। लॉक डाउन से दोनों का काम बंद हो गया। फैक्ट्री बंद होने के दिन से राजबहोर को कोई मदद नहीं मिली। मई में राजकोट से मध्यप्रदेश की सीमा तक आने में 1500 रुपए लगे। जेब में अब हजार रुपए बचे थे। पैसे बचाने के लिए राजबहोर ने 6 दिन के सफ़र में आधे दिन खाना नहीं खाया।
सतना के पटना गांव के राजकुमार को भी हैदराबाद से अपने घर तक की यात्रा में 500 किलोमीटर की यात्रा पैदल करनी पड़ी। वे हैदराबाद में संगमरमर पालिश की फैक्ट्री में काम करते थे। लॉक डाउन के कारण फैक्ट्री बंद हो गई। एक महीने तक बिना काम के बैठे रहे, फिर वापस आना तय किया। ठेकेदार से मजदूरी के बकाया 60 हज़ार मांगे, तो नहीं मिले। उनके पास बस 1000 रुपए बचे थे। पैसा बचाने के लिए उन्होंने बस-ऑटो के अलावा 500 किलोमीटर की यात्रा पैदल की।
मध्यप्रदेश के प्रवासी मजदूरों की ये कहानियां विकास संवाद समिति के रैपिड सर्वे रिपोर्ट के माध्यम से सामने आई है। यह रिपोर्ट 26 मई को ऑनलाइन प्रेस मीट के जरिए विकास संवाद से जुड़े सामाजिक कार्यकर्ता सचिन कुमार जैन और राकेश मालवीय ने जारी किया। रिपोर्ट को मध्यप्रदेश के 10 जिलों के 310 प्रवासी मजदूरों से बातचीत के आधार पर तैयार किया गया है। इनमें से 141 मजदूर (45.5%) अपने परिवार के साथ पलायन पर गए थे। इन मजदूरों के कुल 653 सदस्यों ने पलायन किया था। परिवार के साथ पलायन करने वाले परिवारों के कुल सदस्यों (653) में से 328 (50.2%) सदस्य भी या तो उनके साथ काम कर रहे थे या अन्य किसी आर्थिक गतिविधि में संलग्न थे। इससे परिवार की आय में वृद्धि हो रही थी।
जेब में बस हजार रुपए बचे थे और घर तक का रास्ता हजार किलोमीटर से भी अधिक दूर था। 400 किलोमीटर की यात्रा पैदल की और फिर बस और ऑटो लिया। मैहर पहुंचते ही सारे पैसे खत्म हो गए। उसके बाद 100 किलोमीटर फिर पैदला चला।
राजकुमार
इस अध्ययन से यह पता चला कि त्वरित अध्ययन से यह पता चला कि 310 अध्ययनित व्यक्तियों और परिवारों में से 50.6% लोग पलायन के दौरान निर्माण या इससे जुडी परियोजनाओं में मजदूरी का काम करते थे। इस काम में संगमरमर के पालिश, गिट्टी तोड़ने, पुताई और टाइल्स बनाने आदि के काम शामिल थे। 21 प्रतिशत प्रवासी मजदूर किन्ही व्यापारिक उपक्रमों में दैनिक/मासिक आधार पर रोज़गार पाते थे। इनमें शोरूम में विक्रेता का काम, माल में सुरक्षा कर्मी, किन्हीं दफ्तरों में सेवाएं देने का काम शामिल है। 16.8 प्रतिशत प्रवासी मजदूर कारखानों और छोटे उद्योगों में मशीन चलाने, कपड़ा उद्योग में सहायक आदि का काम कर रहे थे. 8.4 प्रतिशत मजदूर घरेलु सहायक/कामगार की भूमिका में रोज़गार पा रहे थे. केवल 2.3 प्रतिशत प्रवासी बागवानी या फ़ार्महाउस पर, 1 प्रतिशत वाहन चालक और 3.2 प्रतिशत अन्य भूमिका में रोज़गार पा रहे थे। पेश है रिपोर्ट के महत्वपूर्ण नतीजे।
क्या प्रवास पर वापस जाना चाहते हैं मजदूर
मध्यप्रदेश के मानव और आर्थिक विकास सूचकांकों में पिछड़े हुए जिलों के प्रवासी मजदूरों के बीच किए गए अध्ययन से पता चला कि 56.5% मजदूर 3 से 6 महीने के लिए पलायन करते हैं। जबकि 21.8% मजदूर 3 महीने तक ही अवधि के लिए रोज़गार के लिए पलायन पर रहते हैं। कम अवधि का पलायन मुख्य रूप से कृषि मजदूरी के रूप में होता है। 16.8 प्रतिशत मजदूर 6 महीने से 11 महीने के लिए और 5.2 प्रतिशत मजदूर पूरे साल भर पलायन पर रहते हैं। साल भर पलायन पर रहने वाले मजदूर नियमित रूप से गाँव भी नहीं आते हैं।

अध्ययन किये गए प्रवासी मजदूरों के समूह द्वारा दी गयी जानकारी के विश्लेषण से पता चलता है कि 54.5% मजदूर अब पलायन पर वापस नहीं जाना चाह्ते हैं। जबकि 24.5% ने कहा कि उन्हें अभी बहुत सोचना पड़ेगा. जो असमंजस में हैं, उनकी प्राथमिकता में अब पलायन पर जाना नहीं है, किन्तु क्या गाँव में रोज़गार मिल पायेगा? यदि यहाँ रोज़गार नहीं मिला, तो फिर पलायन पर जाने के अलावा क्या विकल्प है?
21% प्रवासी मजदूर अभी पलायन पर जाने के लिए तैयार हैं, क्योंकि उन्हें लगता है कि इससे उन्हें निरंतर रोज़गार मिला रहता है. पलायन पर जाने की उनकी तैयारी के पीछे उनकी यह सोच है कि सरकारें गाँव में लोगों को रहने देना ही नहीं चाहती हैं।
उनका मानना है कि कोविद19 तो एक महामारी है किन्तु हमारे नियोक्ताओं, प्रशासन और सरकारों ने जिस तरह का व्यवहार किया है, वह बहुत दुखद और अपमानजनक रहा है। जिस दिन तालाबंदी हुई, उसी दिन मजदूरों की के बुरे दिनों की शुरुआत भी हुई। जिन मजदूरों ने कई दिनों से अपना वेतन या मजदूरी नहीं ली थी, उन्हें नियोक्ताओं ने बार-बार मिन्नतें करने के बाद भी मजदूरी का भुगतान नहीं किया। तालाबंदी के दौरान अपनी जमापूंजी से 3 से 4 हफ्ते गुज़ारे किन्तु जब यह समझ आने लगा कि व्यवस्थाएं नहीं हो पाएंगी और अब रोज़गार का भी संकट होने वाला है, तब वापस गांव/घर की तरफ लौटना शुरू कर दिया।
रास्ते में पानी में बिस्किट भिगो-भिगोकर खाए। सड़क के किनारों और गांवों की सीमा के बाहर रातें गुजारीं क्योंकि कोविड19 के भय के कारण गांवों में भी प्रवेश की मनाही थी।
मजदूरों ने बताया
ग्रामीण अर्थव्यवस्था को मजबूत करने की जरूरत
सर्वे में सामने आया है कि कोविड19 के कारण उपजी स्थितियों के कारण जिन गांवों में 30 से 70 प्रतिशत तक पलायन होता था, उन गांवों में लगभग सभी लोग वपास आ गए हैं या आ जाएंगे। ये लोग विभिन्न कामों में अपनी भूमिका निभा रहे थे। आर्थिक विकास के ताने-बाने में इन्होनें बहुत भयावह समय देखा है। वापस आये हुए प्रवासी कामगार इस संशय में हैं कि क्या वास्तव में वे अपने घर या गाँव में रुके रह पायेंगे. यदि सरकार यह चाहती है कि प्रवासी मजदूर अभी कुछ साल सुकून से रहे, तो उसे गांव के स्तर पर खाद्य सुरक्षा, स्वास्थ्य, शिक्षा, आवास, सुरक्षा और रोज़गार की माकूल व्यवस्थाएं खड़ी करने में मदद करने वाली नीतियां बनाना और लागू करना होंगी। यदि सरकार हमेशा की तरह गांवों और गाँव के संसाधनों के प्रति उदासीन रही, तो हालात अच्छे नहीं होंगे।
अध्ययन के मुताबिक 90.3% प्रवासी मजदूर मानते हैं कि अब सरकार को परिवार में किसी एक व्यक्ति के लिए नहीं, सभी कार्य सक्षम सदस्यों के लिए रोज़गार के विकल्प उपलब्ध करवाने चाहिए. परिवार में एक व्यक्ति के रोज़गार से पूरे परिवार का भरण पोषण संभव नहीं होगा।
93.9% प्रवासी कामगार चाहते हैं कि सस्ते राशन की योजना को बेहतर बनाया जाए। अभी भी 20% मजदूर परिवार की राशन कार्ड से वंचित हैं और शेष परिवारों में से एक तिहाई परिवारों में एक या एक से ज्यादा सदस्य राशन की सूची में शामिल नहीं है. वे चाहते हैं कि सभी को बिना किसी भेदभाव के सस्ता राशन मिले।
लगभग 63% परिवार (195 परिवार) ऐसे हैं, जिनके पास सब्जियां उगाने, खेती करने या पशुपालन करने की व्यवस्था है. 153 परिवार मानते हैं कि यदि उन्हें कृषि सम्बंधित गतिविधियों को व्यवस्थित करने के लिए आर्थिक अनुदान मिले, तो कोविड19 का संकट बहुत हद तक कम हो सकेगा।
प्रवासी कामगार मानते हैं कि यदि वास्तव में कोविड के दुष्प्रभावों को कम करना है तो गांव में ही उत्पादन बढ़ाना होगा. यह जरूरी नहीं है कि हर गांव में उद्योग स्थापित हो, लेकिन कम से कम ऐसा तो हो कि हमें अपने ही जिले में रोज़गार मिल जाए।
76.8% परिवार जमीन और जमीन से सम्बंधित व्यवस्थाओं में बदलाव चाहते हैं। अभी खेती, पशुपालन और आवास से सम्बंधित मामलों में हर स्थान पर वंचित तबकों, गरीब परिवारों और ख़ास कर मजदूरों के साथ अन्यायकारी स्थितियां बनी हुई हैं। प्रवासी कामगार मानते हैं कि यदि वास्तव में कोविड के दुष्प्रभावों को कम करना है तो गांव में ही उत्पादन बढ़ाना होगा. यह जरूरी नहीं है कि हर गांव में उद्योग स्थापित हो, लेकिन कम से कम ऐसा तो हो कि हमें अपने ही जिले में रोज़गार मिल जाए।
100% प्रवासी कामगार शासकीय योजनाओं (वन क्षेत्रों, अधोसंरचना निर्माण और महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी योजना) के तहत मजदूरी की राशि में वृद्धि की जाना चाहिए।
इसी तरह 100% प्रवासी मजदूर बच्चों और किशोरों के लिए गुणवत्तापूर्ण (यानी अच्छी) शिक्षा की व्यवस्था छाते हैं क्योंकि शिक्षा व्यवस्था का अभाव भी पलायन का एक बड़ा कारण है. 87.7% लोग विकासखंड स्तर पर अच्छी स्वास्थ्य सेवाएँ, 63.2% पेंशन और नकद सहायता चाहते हैं। 65.8 प्रतिशत लोग मानते हैं कि ग्रामीण क्षेत्रों में होने वाले सामाजिक और आर्थिक भेदभाव को रोका जाना चहिए। जब सामाजिक भेदभाव होता है, तब भी गाँव के युवा मानते हैं कि पलायन पर चले जाना बेहतर है।
खराब माली हालत की वजह से हुई वापसी
- 23% मजदूरों के पास घर पहुँचने के वक्त 100 या इससे कम रुपये थे.
- 25.2% मजदूर जब घर पहुंचे तब उनके पास 101 रुपये से 500 रुपये की राशि और
- 18.1% मजदूरों के पास 501 रुपये से 1000 रुपये की राशि शेष बची थी.
- 22.6% प्रवासी मजदूरों के पास कठिन और बुरे सपने जैसी यात्रा को पूरा करने के बाद 1001 रुपये से 2000 रुपये तक की राशि शेष बची थी.
- लगभग 11% मजदूर ही ऐसे थे, जिनके पास 2000 रुपये से ज्यादा की राशि शेष रही.
वापसी के बाद गांव में क्या हुआ
- 71.3% प्रवासी मजदूरों का कहना है कि समुदाय या गाँव/बस्ती के अन्य लोगों का व्यवहार सामान्य ही रहा. जब वे पलायन से वापस आये, तब उन्हें अपने परिवार से अलग रहने को कहा गया. इस दौरान वे स्कूल, पंचायत भवन या फिर किसी झोंपड़ी में रहे. यह एक अनिवार्यता थी ताकि महामारी के फैलाव को रोका जा सके.
- 23.5% प्रवासी मजदूरों का कहना है कि वापस आने पर उनके साथ भेदभाव पूर्ण व्यवहार किया गया.
- 5.2% लोगों के साथ अपमानजनक व्यवहार किया गया.
- 57.4% प्रवासी मजदूरों पर कोई क़र्ज़ नहीं है. इनमें से कुछ लोग आपने नातेदारी में कुछ राशि उधार ले लेते हैं, किन्तु उसे क़र्ज़ के रूप में परिभाषित नहीं करते हैं.
- बेहद कमज़ोर आर्थिक स्थिति वाले प्रवासी मजदूर कहते हैं कि चूंकि हमारे पास कोई संसाधन (जमीन, घर के कागज़ आदि) नहीं हैं, इसलिए हमें क़र्ज़ मिलता भी नहीं है.
- 15% प्रवासी मजदूरों पर रु. 2001 से रु. 5000 का क़र्ज़ है. 3.5% परिवार ऐसे हैं, जिन पर रु. 25 हज़ार से 50 हज़ार का क़र्ज़ है.
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